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इतिहास

दमोह का इतिहास बहुत प्राचीन है। सिंग्रामपुर में मिले पौराणिक काल के पाषाण हथियार इस बात का साक्ष्य है कि यह स्थान करोड़ो वर्ष पहले से मानव सभ्यता का पालना रहा है। 5वीं शताब्दी मे यह पाटिलीपुत्र के भव्य एवं शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य का हिस्सा था। इसका सबूत जिले के विभिन्न स्थानों पर पाए जाने वाले शिलालेख, सिक्के, (दुर्गा मंदिर) व अन्य वस्तुए है जिनका संबंध समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, और स्कंन्दगुप्त के शासन काल से था। 8 वीं शाताब्दी से 12 वीं शाताब्दी के मध्य दमोह जिले का कुछ भाग चेदी साम्राज्य के अंतर्गत आता था। जिसमें कलचुरी राजाओं का शासन था और उनकी राजधानी त्रिपुरी थी।

दसवीं शताब्दी के कलचुरी शासकों के स्थापत्य कला और शासन का जीता जागता उदाहरण है नोहटा का नोहलेश्वर मंदिर। ऐतहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि दमोह जिले के कुछ क्षेत्र पर चंदेलो का शासन था जिसे जेजाक मुक्ति कहा जाता था। 14 वीं शाताब्दी में दमोह में मुगलो का अधिपत्य शासन रहा और ग्राम सलैया तथा बटियागढ़ में पाए जाने वाले पाषाण शिलालेखो में खिलजी और तुगलक वंश के शासन का उल्लेख है। बाद में मालवा के सुल्तान ने यहाँ शासन किया। 15 वीं शताब्दी के आखिरी दशक में गौड़ वंश के शासक संग्राम सिंह ने इसे अपने शक्तिशाली एंव बहुआयामी साम्राज्य में शामिल किया जिसमें 52 किले थे। यह समय क्षेत्र के लिए शांति और समृद्धि का था।

सिंग्रामपुर में रानी दुर्गावती मुगल साम्राज्य के प्रतिनिधी सेनापति आसफ खान, की सेना से साहस पूर्ण युद्ध करते हुए वीरगती को प्राप्त हुई। अपने साम्राज्य की एकता और अंखडता को बनाए रखने के लिए उनके संकल्प समर्पण और साहस की बराबरी विश्व इतिहास में नहीं होगी। क्षेत्र में बुंदेलो ने कुछ समय के लिए यहाँ राज्य किया इसके बाद मराठों ने राज्य किया। सन् 1888 में पेषवा की मृत्यु के बाद अंगे्रजो ने मराठों को उखाड फेंका।

अंगे्रजो से भारत के स्वतंत्र कराने के लिए दमोह ने देश की स्वतंत्रता के लिए हो रहे संघर्ष में बराबरी से भाग लिया। हिडोरिया के ठाकुर, किशोर सिंह सिग्रामंपुर के राजा देवी सिंह, करीजोग के पंचम सिंह गंगाधर राव, रघुनाथ राव, मेजवान सिंह, गोविंद राव, इत्यादि के कुशल नेतृत्व में अंगे्रजों के खिलाफ 1857 के विद्रोह में भाग लिया। पौराणिक कक्षा के अनुसार दमोह शहर का नाम नरवर की रानी दमंयती जो कि राजा नल की पत्नि थी, के नाम पर पड़ा।